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मैं, इस बात से अनजान, अनभिज्ञ।

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कितना कुछ था ज़िन्दगी में, जब covid नहीं था।

Covid, इतना बेरहम, इतना निर्देयी।

मैं, इस बात से अनजान, अनभिज्ञ।।

बस, अपनी मासूमियत में, इस covid से लड़ने चला।

बिन सोचे, लड़ाई भीतर की या बाहर की।।

वो पंद्रह दिन, हॉस्पिटल का कमरा, एक जेल समान।

एक खिड़की, जिस में से न कोई अंदर देख सकता न बाहर।

केवल, एक दीवार, खिड़की के सामने।

न मौसम का पता, न दिन का।

बस दिन काटने की कोशिश-

कुछ उम्मीदें, कुछ हसरतें,  साथ लिए।

और कुछ यादें।।

दीवार के ऊपर से छन कर आती सूर्य की किरणे।

कुछ उम्मीदें तो लातीं, पर वो भी कहीं खो जातीं।

शायद, बादलों से हार जाती।।।

उम्मीदें- फिर सब ठीक होने की।

बाहर की दुनिया में वो सब पा लेने की, जो मैं छोड़ आया था।

मैं, इस बात से अनजान, अनभिज्ञ।।

बाहर अब सब कुछ वैसा नहीं।

बहुत कुछ बदल गया।।

मौसम के साथ साथ – बहुत कुछ।।

शायद, covid आया  था, वो सब कुछ छीनने।

उस एक महीने के अतिरिक्त भी- कितना कुछ covid निगल गया। ।।

में इस बात से अनजान, अनभिज्ञ।।।।

नवनीत कालिया

मई 2021

(लेख़क ने कोरोना को हराने के पश्चात अपनी अपनी भावनाओं को अपनी लेखनी से शब्दों में पिरोया)

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