विलुप्त होती भारतीयता
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परिवर्तन प्रकति का नियम है। जब हम विकास की दौड़ में आगे बढ़ेंगे तो हर छेत्र में परिवर्तन होना अपरिहार्य है। आधुनिकता को अपनाना भी आवश्यक है किन्तु अपनी पुरातन सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक रीतिरिवाज़ों को बिलकुल त्याग देना क्या उचित है? जब वृच्छ अपनी जड़ों से अलग होता है तो उसका क्या हस्र होता है, सर्वविदित है। अतः हमारे देश, धर्म और समाज के लिए यह आवश्यक है कि हम पुरातन और आधुनिकता के समन्वय से आगे बढ़ें। आज हमारी नारी शक्ति हर क्षेत्र में आगे बढ़कर कार्य कर रही है, उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रही है। अतः उसे प्राचीनता की बेड़ियों में तो जकड़ा नहीं जा सकता और यह उचित भी नहीं है। किंतु इतना तो हो सकता है कि हम आधुनिकता और पश्चिम की नकल के चक्कर में फूहड़ प्रदर्शन तो न करें। अपनी मान मर्यादा और शालीनता को बनाए रखें। वर्तमान में जो हृदय विदारक, समाज विरोधी और दर्दनाक घटनाएं देखने और सुनने को मिल रही हैं वह भारतीय समाज के लिए बहुत बड़ा कलंक हैं। जैसे शादी के बाद पति की हत्या कर देना, प्रेम संबंधों में विफल रहने पर हत्या होना और दो-चार महीने में ही तलाक हो जाना, एक तरफा प्यार में असफल होने पर हत्या होना, सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या होना आदि-आदि घटनाओं ने समाज को हिला कर रख दिया है।
इसके लिए हमें बचपन से ही युवक और युवतियों को सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों और परंपराओं से अवगत कराना होगा। सावित्री और भगवान राम के जैसे उदाहरण से सीख देनी होगी जो पति के प्राण भी यमराज से वापस ले आईं थी और जिन्होंने पत्नी को मुक्त करने के लिए रावण जैसे महाबली और प्रतापी का सर्वनाश कर दिया। इन समाज और राष्ट्र विरोधी कृत्यों और बुराइयों से बचने के लिए माता-पिता, शिक्षक, साधु-संतों, धर्मगुरुओं, समाज सुधारकों और भारत भूमि से प्यार करने वाले हर नागरिक को आगे आकर पहल करनी होगी, उत्तरदायित्व निभाना होगा। तभी हम विकास और विरासत के समन्वय के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के विचार को क्रियान्वित कर सकेंगे तथा भारत को विश्व गुरु और विकसित राष्ट्र बना सकेंगे।
दुर्ग पाल सिंह, सेवा निवृत अध्यापक सलेमपुर, हाथरस, उत्तर प्रदेश