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हिमाचल प्रदेश के निर्माण की संघर्ष भरी कहानी

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— सहायक प्रो. प्यार सिंह ठाकुर

हिमाचल प्रदेश का इतिहास उतना पुराना है जितनी पुरानी मानव सभ्यता। इस हिमालयन भूमि का वैदिक व आदिकाल से हर युग में मानव सभ्यताओं का अपना कर्म-धर्म और संघर्ष रहा है। यहां रियासती काल से पहले छोटे-छोटे जनपद हुआ करते थे जैसे कि महर्षि पाणिनि ने पश्चिम हिमालय क्षेत्र के जनपदों का ‘उदीच्य’ नाम से उल्लेख किया है। महर्षि पाणिनी ने प्रथम समूह में त्रिगर्त, गब्दिका, युगन्धर, कालकूट, भरद्वाज, कुलूत और कुनिन्द तथा दूसरे समूह में अन्य गणराज्यों के साथ औदुम्बर गणराज्य का उल्लेख किया है। मुख्यत: ये आयुद्धजीवी गणराज्य रहे थे। इन सभी गणराज्यों के संदर्भ में प्रमाण वेद, रामायण, महाभारत, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, पाणिनि की अष्टाध्यायी और बृहत्संहिता में मिलते हैं।

पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में अवस्थित हिमाचल प्रदेश मानव सभ्यता का प्रथम घर भी कहा जाता है। यहाँ कई सृष्टियों का प्रादुर्भाव हुआ। पर्वतराज हिमालय या हिमाचल को पर्वतराज भी कहा जाता है।
इस हिमालयन क्षेत्र की मानवीय सभ्यता का वर्णन कई विद्वानों और मुनि-ऋषियों ने किया है।
इतिहासकारों ने भी हिमाचल की शिवालिक की पहाड़ियों, शिवालिक की रोपड़घाटी, हरितल्यांगर (बिलासपुर), सुकेती (सिरमौर), नालागढ़, व्यास, बाणगंगा की तलहटियां, शिमला पब्बर नदी घाटी, सिरसा-सतलुज आदि नदी-घाटियों में पुरातात्त्विक कालक्रमिक ऐतिहासिक प्रमाण दिए हैं। पूर्व पाषाणकालीन, मध्य पाषाणकालीन और नव पाषाणकालीन (25 लाख वर्ष पूर्व से लेकर 12000 ई.पू.) एवं कांस्य युग की कालावधि में प्रस्तर हथियारों, बर्तनों तथा जीवनयापन के प्रमाण दिए हैं और वर्तमान समय में भी यह खोज जारी है। इस हिमालयन क्षेत्र में वैदिक काल से ही मानव सभ्यता के संघर्ष के उदाहरण हिन्दू वेदों, धार्मिक ग्रंथों, पुराणों में विद्यमान हैं जैसे कि वेदों में ‘दाशराज’ युद्ध का विवरण मिलता है। विश्वामित्र ने आर्यजनपदों को संगठित कर सुदास के विरुद्ध एक सैन्य संघ तैयार किया था। यह युद्ध रावी नदी घाटी में दाशराज और तृस्तुओं के मध्य हुआ, जिसका वर्णन ॠग्वेद की ॠचाओं में मिलता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि वैदिक तृस्तुओंं का मूल क्षेत्र आज का हिमाचल प्रदेश है और यही क्षेत्र साहित्य एवं इतिहास में त्रिगर्त के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तृस्तु और त्रिगर्त का शाब्दिक एवं व्युत्पत्तिलभ्यार्थ भाव एक ही है। तृस्तु वैदिक काल के बाद बदली हुई परिस्थिति में त्रिगर्त नाम से प्रसिद्ध हुए और बाद में सतलुज, व्यास और रावी नदी के कारण भी इसे त्रिगर्त कहा जाता है। इसकी सीमाएं हिमाचल प्रदेश के पूर्व सतलुज नदी से पश्चिम में रावी नदी तक और दक्षिण में जालन्धर दोआब से मुलतान तक थी। इस क्षेत्र में कटोच राजवंश प्राचीनतम राजवंश है जिसका संस्थापक राजा भूमिचंद्रर था।
वेदों में कहा गया है कि वैदिक युग के उत्तर पूर्वी कालखण्ड में छोटे-छोटे जनपदों का निर्माण हुआ। इन्हीं जनपदों में पश्चिम हिमालय क्षेत्र में राजनैतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों ने आदि काल से लेकर वर्तमान तक मानव सभ्यता के विकास में अपना विशेष महत्त्व रहा है।
कई कालखंडों के ऐतिहासिक संघर्षों के बाद आठवीं से बारहवीं शताब्दी और बारहवीं से उत्तरवर्ती शताब्दियों में राजपूत काल में हिमाचल के भूभाग में दो प्रकार के राज्य अस्तित्व में आए। त्रिगर्त, कुलूत, चम्बा और बुशहर पूर्व से ही स्थापित थे। राजपूत शासकों की स्थापना की होड़ में गुर्जर प्रतिहार वंश, चंदेल, कलचूरी, परमार, तोमर, ठाकुर-राणा, चौहान आदि राजवंशों की स्थापना हुई। तत्पश्चात अरब, तुर्क, मुगल, मंगोलों के आक्रमण जो 1009 में मुहम्मद गजनवी से प्रारम्भ होते हैं उसमें यहां की धन संपदा की लूट, धर्मभ्रष्ट करने और अपना अधिपत्य स्थापित करने के लिए असंख्य आक्रमण हुए जिसमें जहांगीर कुछ काल के लिए कांगड़ा किला को अपने अधीन करने में सफल हुआ था। परन्तु कटोच राजवंश अपने राज्य को पुन: प्राप्त करने में सफल हुए थे। यहां मुगलों के आक्रमण का इतना फर्क नहीं पड़ा जितना कि भारत के मैदानी इलाकों में पड़ा था। मैदानों से पलायन कर राजपूत और उनके साथ उनके कुलगुरु यानी ब्राह्मण समाज के लोग भी हिमालयन क्षेत्र में शरण ली और यहां के छोटे-छोटे आदिवासी समुदाय को हराकर अपने राज्यों की नींव रखी।
मुगलों के बाद भारत ब्रिटिश सत्ता के अधीन हिमाचल प्रदेश दो भागों में विभक्त होकर 1815 की आंग्ल-गोरखा संधि के कारण शिमला की पहाड़ी रियासतें अस्तित्व में आईं और 1846 की आंग्ल-सिख लाहौर संधि के कारण कांगड़ा की पहाड़ी रियासत अंग्रेजों के अधीन आई। यहां गोरखों और सिखों ने भी आक्रमण किए। शिमला हिल स्टेट गोरखों से तंग था और कांगड़ा की पहाड़ी रियासतें सिक्खों से परेशान थीं और अंग्रेजी अत्याचार उससे भी अत्यन्त कष्टदायक थे। नूरपुर रियासत के वजीर रामसिंह पठानिया ने नूरपुर रियासत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने के लिए 1846 से 1849 तक सशस्त्र सेना के साथ युद्ध किया और विदेशी दासता की मुक्ति के लिए 1857 की क्रान्ति से 11 वर्ष पूर्व अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए शहीद हो गए थे। अपने अधिकारों के लिए और संघर्षों से जूझना इस भूमि की हमेशा पहचान रही है।

इस पहाड़ी क्षेत्र हिमाचल प्रदेश में अंग्रेजों की शोषणकारी नीति, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप, भारतीयों के प्रति हीनद़ृष्टि रखना, धार्मिक आस्थाओं और मान्यताओं में हस्तक्षेप ने किसानों, मजदूरों, सन्त-फकीरों, साधु-सन्तों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों को क्रांति के लिए मजबूर कर दिया था और यही कारण था कि 1857 के स्वतन्त्रता आन्दोलन की चिंगारी हिमाचल प्रदेश में 30 अप्रैल, 1857 को कसौली की छावनी में भड़क उठी थी।
अब स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी सुलगती नज़र नहीं आ रही थी और हिमाचल प्रदेश में अंग्रेजों के विरुद्ध किसान आंदोलन क्रांति का रूप धारण कर रहे थे। ये किसान आन्दोलन अलग-अलग नामों जैसे दूम्म आन्दोलन, झुग्गा आन्दोलन, मण्डी किसान आन्दोलन, सुकेत आन्दोलन और पझौता आंदोलन आदि आन्दोलनों से जाने जाते थे।
हिमाचल प्रदेश को वीर भूमि यूँ नहीं कहा जाता क्योंकि क्रांतिकारी कदम हमेशा परिवर्तन और अन्याय के खिलाफ बढ़ते रहे हैं अतः अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध क्रान्तिकारी गतिविधियों में स्वामी कृष्णानन्द (हरदेव), हिरदा राम, इन्द्रपाल (मंगतू), मंडी की रानी खैरगढ़ी जिसे हिमाचल की झांसी की रानी भी कहा जाता है, यशपाल का नाम प्रमुखता से हिमाचल के इतिहास में दर्ज है। इन सब क्रान्तिकारियों के पीछे आर्य समाज की शिक्षा और स्वराज प्राप्ति के लिए बलिदान होने की भावना नजर आती है।

यह दिलचस्प है कि 1947 में देश की आज़ादी के साथ 2 मार्च, 1948 को भारत सरकार के राज्य मंत्रालय (मिनीस्ट्री ऑफ स्टेट) ने दिल्ली में शिमला एवं पंजाब पहाड़ी रियासतों की बैठक बुलाई। इस बैठक में मंत्रालय के सचिव सी.सी. देसाई ने देशी शासकों से बिना शर्त ‘विलय पत्र’ पर हस्ताक्षर करने को कहा और फिर 2 मार्च, 1948 को शिमला की पहाड़ी रियासतों के राजाओं के विलयपत्र पर हस्ताक्षर हुए। इस प्रकार 15 अप्रैल, 1948 को हिमालयन क्षेत्र की 30 छोटी-बड़ी शिमला सहित की ठाकुराइयों को मिलाकर ‘हिमाचल प्रदेश’ की स्थापना हुई। 24 मार्च, 1953 को डॉ. यशवन्त सिंह परमार हिमाचल प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बनें। 25 जनवरी, 1971 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने शिमला के रिज मैदान पर प्रदेशवासियों को 18वें राज्य के रूप में हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्यत्व का दर्जा प्रदान किया। परंतु इस सफलता के पीछे एक लंबा इंतजार और हिमाचल के योगों व नेताओं का योगदान रहा है। यह इतना आसान नहीं था। भारत के लोग अंग्रेजी यानी ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए जिस प्रकार संघर्ष कर रहे थे उसी प्रकार हिमालयन छोटी-छोटी रियासतें व राज्य-जनपद एक तरफ वीर क्रांतिकारी व जन नेता ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे वहीं दूसरी लड़ाई रियासतों के निरकुंश राजाओं के ख़िलाफ़ भी लड़ रहे। इस संघर्ष की कड़ी में पहाड़ों में भी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण हिमाचल में संघर्ष चरम सीमा पर था। तब हिमाचल प्रदेश के पूर्व संगठन से पहले इस पहाड़ी जनपदों वाले प्रदेश को हिमालयन भूमि जैसे नामों से पुकारा जाता था। भले ही भारत के पाँच सौ पैंसठ राज्य जनपदों व रियासतों का विलय एक भारत गणतंत्रीय राज्य स्वतंत्रता से लेकर स्थानीय राजाओं से मुक्ति पाने के लिए जनमानस में आक्रोश के साथ आज़ादी का बिगुल बज चुका था और इसी तरह हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में भी स्वाधीनता की ज्योति ‘प्रजामण्डल आंदोलन’ के माध्यम से जग चुकी थी। पहाड़ी क्षेत्रों में अन्य रियासतों की तरह यहां के लोग खासकर किसान तपका लगान और बेगार प्रथा से तंग आ चुके थे और उनका क्रोध अब क्रांति में बदल रहा था कि किसी-न-किसी तरह दासताँ की बेड़ियों को तोड़ा जाए। इसके लिए छोटे-छोटे प्रजामण्डलों की स्थापना की जाने लगी और आम आदमी को इन प्रजामण्डलों से जोड़ा जाने लगा। ‘प्रजामण्डल’ का सम्बन्ध किसानों से था। किसानों ने रियासती शासन के विरुद्ध अपने-अपने ढंग से संघर्ष किया। सन 1939 में किसान नेताओं व आज़ादी के परवानों ने पंजाब के लुधियाना में ‘ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कांग्रेस’ का अधिवेशन हुआ जिसमें पहाड़ी राज्यों में प्रजामण्डल बनाने और इन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने का निर्णय लिया गया और इसी अधिवेशन से भारत के सभी जनपदों में आंदोलन ब्रिटिश सरकार और रजवाड़ों के विरुद्ध संघर्ष चलाने के लिए कांग्रेस के सहयोगी संगठन से लेकर राज्य परिषद के माध्यम से प्रजामण्डलों के कार्यों को तेज करने का आह्वान किया और हिमाचल के पहाड़ी इलाकों व जनपदों में क्रांतिकारी नेता व किसान नेता पट्टाभि सीतारमैया को इस कार्य का जिम्मा सौंपा गया।

नेता सीतारमैया की सूझ-बूझ तथा कार्यकुशलता तथा सहयोगी संगठन के माध्यम से हिमाचल प्रदेश की तीस रियासतों में आजादी के कार्यकर्ताओं का संगठन प्रजामण्डल के माध्यम से जोर पकड़ता गया और इसी कड़ी में 13 जुलाई, 1937 के धामी रियासत में ‘धामी प्रेम प्रचारिणी सभा’ की बैठक हुए और बाद में इस सभा का नाम बदल कर ‘धामी -प्रजामण्डल’ की नींव रखी गई। इस बैठक में ही 13 जुलाई, 1937 में प्रजामण्डल ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें पूर्ण जिम्मेदार सरकार, नागरिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति का अधिकार, माल में पचास प्रतिशत कटौती, बेगार प्रथा का उन्मूलन, जब्त की गई भूमि की वापसी तथा प्रजामण्डल को मान्यता आदि मांगें राजा के समक्ष रखने का निर्णय लिया गया। प्रजामण्डल ने ऐसी मांगों को लेकर प्रस्ताव लाया जो राजनीतिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। राज्य के अन्दर लम्बे समय भूमि से जुड़ी मांगों को लेकर तनाव बना हुआ था। पिछले तीन वर्षों से लगातार किसानों की फसलें खराब हो रही थी और राजा इन करों में छूट देने को तैयार नहीं था।

शिमला ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी होने के कारण यहां महात्मा गांधी जैसे बड़े-बड़े नेताओं का आना-जाना लगा रहा था। जिस कारण पहाड़ों में पहाड़ी लोगों में भी समूचे राष्ट्र के साथ आजादी प्राप्त करने की इच्छा प्रबल होती गई परन्तु पहाड़ों की रियासतों के शासन व प्रशासन के ढांचे में लोगों की भागीदारी का कोई ऐसा साधन नहीं था जिसके माध्यम से आमजन अपने प्रतिनिधियों के द्वारा जनतांत्रिक तरीके से अपनी कठिनाइयों तथा अपेक्षाओं को राजाओं तक पहुंचाते। कुछ पहाड़ी रियासतों में जनता द्वारा विरोध का एक माध्यम ‘दूम्ह’ था। ‘दूम्ह’ लोगों को संगठित करने की मिसालें बुशहर और मण्डी रियासतों में जनविरोध प्रकट करने के लिए प्रयोग की जाती थी। ‘दुम्ह’ जन- विचारों व क्रांतिकारी विचारों को सामूहिक रूप से आमजन द्वारा अभिव्यक्त करने का एक अनूठा तरीका था। ‘दूम्ह’ में शामिल होने वालों को कई प्रकार से दंडित किया जाता था और यहां तक कि उनकी फसलें भी रियासती प्रशासन द्वारा जलाई जाती थी।

समय की गति के साथ बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में इन पहाड़ी रियासतों में गैर-राजनीतिक संगठन बने जिनमें ‘चम्बा सेवक संघ’, ‘धामी प्रेम प्रचारिणी सभा’ तथा ‘बुशहर सेवा मण्डल’ प्रमुख थे। शुरुआती दौर में ये सभी संगठन सामाजिक संस्थाएं ही थीं परन्तु 1931 के आते-आते ये सभी संस्थाएं सांस्कृतिक एवं सामाजिक गतिविधियों के अलावा राजनीतिक एवं जनतांत्रिक चेतना की प्रेरणा स्रोत बन गईं और आगे चलकर यही संगठन गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले प्रजामण्डल बनें। इस तरह पहाड़ी रियासतों में जनतांत्रिक चेतना को एक संगठनात्मक व लोगों को जोड़ने वाला मंच मिला। अब पहाड़ के लोगों में राजनीतिक एवं जनतांत्रिक चेतना के इस प्रकार फैलने पर एक ब्रिटिश अधिकारी रेने ने ‘दि ट्रिब्यून’ अखबार में एक टिप्पणी की थी कि-‘जनवादी विचार विशालकाय बैरियर को पार करके शिमला की पहाड़ियों तक पहुंच चुके हैं, जिन्हें एक आंधी की तरह दबाने की भरपूर कोशिश की गई लेकिन इसकी चिंगारी धीरे-धीरे सारी पहाड़ी रियासतों में ज्वाला बन कर पहुंच गई हैं।” जनतांत्रिक व लोकतांत्रिक चेतना का रूप वास्तव में सामंतवाद व राजाओं के विरोधी के लिए था क्योंकि प्रजामण्डल की बुनियादी मांगों में भूमि के लगान तथा बेगार प्रथा के खात्मे की मांग सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी जिससे लोग अब तंग आ चुके थे और अत्याचारों से दुखी होकर आत्महत्या भी कर लेते थे।

पहाड़ी जनता मन में अपने को एक साथ संगठित करने की इच्छा बहुत प्रबल थी जो उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं आम रहन-सहन की कठिनाइयों की प्रतिक्रिया के रूप में बलबती होती जा रही थी क्योंकि पहाड़ी रियासतों के राज्य प्रशासन की बर्बरता, रियासतों के अधिकारियों के कठोर बर्ताव, लगानों एवं करों के बोझ से तंग आ चुकी जनता को एक लोकतांत्रिक-संगठनात्मक ढांचे की प्रबल आवश्यकता थी जो प्रजामण्डल के रूप में उनको मिली। कर व लगानों में कटौती तथा फसलों के खराब होने की स्थिति में इनकी माफी के लिए इन प्रजामण्डलों की मुख्य मांगों रही थीं। इसके अलावा भी पहाड़ी रियासतों में राजाओं द्वारा प्रजा पर अनगिनत कर लगाए जाते थे। इनमें पासनियाँ चरागाहों, पनचक्को, राजा के परिवार के जीवन मरण पर कर आदि असंख्य करों की मार पहाड़ की आम जनता झेल रही थी। बेगार प्रथा की समस्या से निपटने को लेकर इन प्रजामण्डलों को बहुत लोकप्रियता मिली जो इन प्रजामण्डलों के संगठनों के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य और रियासतों के राजाओं के विरुद्ध क्रांतिकारी आंदोलन का केंद्र बिन्दु बन गई थी। सन 1940 के आस-पास प्रजामण्डलों की इन मांगों को लेकर बहुत से छोटे-बड़े तथा ऐतिहासिक आंदोलन लड़े गए जो इतिहास में दर्ज़ हैं।

हिमालयन पहाड़ी रियासतों का राजनीतिक पिछड़ापन और इन पहाड़ी रियासतों में लोकप्रिय आंदोलनों की कमी इस बात से स्पष्ट होती है कि 1929 के ‘आल इण्डिया स्टेट पीपल्स कॉन्फ्रेंस’ के बम्बई अधिवेशन में हिमाचल से किसी भी कार्यकर्ता ने भाग नहीं लिया हालांकि बाद में सन 1939 के पंजाब के लुधियाना अधिवेशन में श्री पद्मदेव व और उनके दूसरे कुछ साथियों ने जरूर हिस्सा लिया था। आल इण्डिया स्टेट पीपल्स कॉन्फ्रेंस’ से सीधी मदद न मिलने के कारण भी हिमाचल के पहाड़ों में प्रजामण्डल का विकास नहीं हो पाया। परंतु दिल्ली में कार्यरत हिमालयन स्टेट्स पील्स कांफ्रेंस के प्रयासों से ही प्रजामण्डलों का ‘आल इण्डिया स्टेट पीपल्स कॉन्फ्रेंस’ से मान्यता कराई गई। शिमला और पंजाब हिल स्टेट्स में प्रजामण्डलों का विकास इस शताब्दी के तीसरे दशक के अंत में शुरू हुआ। हालांकि इससे पहले भी स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बज़ चुका था जिससे सन् 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से लेकर पहाड़ों में विभिन्न क्रांतियां हुईं जिनमें इस हिमाचल प्रदेश की छोटी-छोटी रियासतों में बंटे पहाड़ी लोग शामिल हुए लेकिन हिमाचल के इतिहास में सबसे चर्चित घटना ‘धामी गोलीकांड’ रही। अब पहाड़ों की जनता अपना बलिदान देने के लिए और राजाओं से सीधी टक्कर ले रही थी कि किसी भी तरह सामंतवाद को समाप्त कर पहाड़ी रियासतों का भारतीय संघ में लोकतांत्रिक तरीके से विलय कराया जाए और यही कारण था कि सन् 1948 के आरम्भ में पहाड़ी रियासतों में जारी स्वाधीनता संघर्ष चरम सीमा तक पहुंच गया था। हिमाचल प्रदेश में स्वतंत्रता संग्राम की इस क्रांतिकारी लहर में प्रजामण्डल आंदोलनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा और शिमला इन प्रजामण्डलों के कार्यकलापों व नेताओं के जनसंवाद का केन्द्र बना और इसी तरह इन प्रजामण्डलों की क्रांतिकारी व लोकतांत्रिक गतिविधियों ने हिमाचल की सभी पहाड़ी रियासतों के एकीकरण के कार्य में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन पूर्ण रूप से हिमाचल के पहाड़ों को भारत के अभिन्न अंग के रूप में और हिमाचल प्रदेश को नई पहचान और लोकतांत्रिक नेतृत्व प्रदान करने के लिए अभी संघर्ष जारी था और चुनौतियां बेबस थीं। अब भारत के एक राज्य व इकाई के रूप में उभरने के लिए संघर्षों का दौर शेष था और इस दिशा में
हिमाचल प्रदेश में कार्यरत विभिन्न प्रजामण्डलों के कामों का समन्वय करने के लिए ‘हिमाचल हिल स्टेट्स रीजनल कौंसिल’ का गठन किया गया। इस रीजनल कौंसिल में पंडित पद्मदेव, शिवानंद रमोल, पूर्णानन्द, सत्यदेव बुशहरी, डॉ. यशवंत सिंह परमार, खुदो राम चन्देल, दौलतराम सांख्यान और मनसा राम जैसे नेताओं को शामिल किया गया जिन्होंने स्वतंत्र पहाड़ी राज्य स्थापित करने का बीड़ा उठाया और दिन-रात इसके लिए संघर्ष भी किया। उन्होंने छोटी-छोटी रियासतों में बने प्रजामण्डलों को इकट्ठा कर ‘हिमालय रियासती प्रजामण्डल’ की स्थापना की और इसी दौरान कुनिहार, चम्बा, मण्डी, सुकेत, सिरमौर, बुशहर, बिलासपुर तथा अन्य छोटी-छोटी रियासतों में भी प्रजामण्डल संगठित किए गए। इन प्रजामंडल संगठनों को क्रियाशील बनाने में सन 1946 की ‘आल इण्डिया स्टेट पीपल्स कॉन्फ्रेंस’ की उदयपुर कांफ्रेंस महत्त्वपूर्ण रही और फिर उसके बाद मण्डी में एक बैठक हुई जिसमें ‘हिमालयन हिल-स्टेट-रीजनल कौंसिल’ की स्थापना की गई। मंडी में हुई यह बैठक महत्त्वपूर्ण साबित हुई क्योंकि इससे लोकतांत्रिक- प्रजामण्डलों के एकीकरण की प्रक्रिया पूरी हुई जो संपूर्ण हिमाचल यानी तीस पहाड़ी रियासतों के गठन के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था व एक लोकतांत्रिक राज्य के निर्माण के लिए एक पक्की नींव थी।
सन 1940 के दशक में प्रजातांत्रिक प्रजामण्डल की मांगों में एक स्पष्ट सा बदलाव आया यह बदलाव बेगार प्रथा का उन्मूलन, लगान अथवा अन्य करों को समाप्त करने की मांग रखकर हर पहाड़ी रियासत में जिम्मेवार लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना पर जोर दिया गया। हालांकि इससे पहले भी राज्य प्रशासन को लोकतांत्रिक बनाने के लिए तथा प्रजा के चुने हुए नुमाइन्दों व प्रतिनिधियों को लोकतांत्रिक सरकार के निर्माण के लिए चम्बा प्रजामण्डल, हिमालयन रियासती प्रजामण्डल तथा अन्य संगठनों ने सन 1938 में भी यह माँग की थी पर 1945-46 में यह मांग काफी जोर पकड़ गई थी। मण्डी में प्रशासन में जायदाद के आधार पर जनप्रतिनिधियों के नामांकन किए जाते थे परंतु लोकतांत्रिक प्रजामण्डल के हस्तक्षेप पर आम जनता की भागीदार को मांग मानी गई कि जनता में से ही जनप्रतिनिधि होना चाहिए न कि कोई व्यक्ति विशेष और एक मंत्रालय का गठन भी किया गया।
दूसरी ओर सिरमौर में भी ‘पझौता आन्दोलन’ के पश्चात राज्य परिषद बनाई गई थी। भारत के आजाद होने के बावजूद भी हिमालयन प्रान्त के अधिकांश रियासतों की जनता को लोकतांत्रिक अधिकार हासिल नहीं हो पाए थे। परंतु सन 1947 में यह मांग जोर- शोर से उठाई गई और इसी संदर्भ में तत्कालीन नेता डॉ. यशवंत सिंह परमार और श्री पद्मदेव की ‘हिमालयन हिल स्टेट’ की ‘रीजनल कॉसिल’ ने 1 अक्तूबर, 1947 को सिरमौर व सुकेत की रियासतों में जिम्मेदार व लोकतांत्रिक सरकार गठित करने की मांग दोहराई। लोकतांत्रिक प्रजामण्डल के सभी नेता पहाड़ी रियासतों को मिलाकर एक पहाड़ी प्रांत बनाने के हक में थे।
बाद में इसी संदर्भ में 4 जनवरी, 1948 को शिमला में एक कांफ्रेंस का आयोजन किया गया जिसमें पहाड़ी रियासतों के नेताओं ने हिस्सा लिया। इस कांफ्रेंस में सभी पहाड़ी रियासतों को मिलाकर एक ‘हिमालयन प्रांत’ बनाने के पक्ष में प्रस्ताव पारित हुआ और फिर इसके उपरान्त 13 जनवरी, 1948 में दूसरी कॉफ्रेंस कोटगढ़ व तीसरी कॉन्फेंस रामपुर में हुई जिसमें ‘हिमालयन प्रांत’ के गठन पर और जोर दिया गया।
अब हिमालय का माथा ऊँचा होने जा रहा था और पहाड़ों के लोगों की नई व्यवस्था, संस्कृति, इतिहास को पहचान मिलने का नया अध्याय लिखा जा रहा था। 25 जनवरी, 1948 को शिमला के गंज मैदान में एक विशाल जनसभा हुई इसमें प्रजामंडल के कई नेताओं ने भाग लिया। डॉ. यशवंत सिंह परमार ने इस जनसभा की अध्यक्षता की और उन्होंने पहाड़ी व हिमालयन रियासतों के भारत संघ में विलय पर जोर दिया। साथ में ‘हिमालय प्रांत’ का प्रस्ताव भी पारित हुआ। पं. पद्मदेव व अन्य प्रजा मंडलियों ने डॉ. परमार के प्रस्तावों का भरपूर समर्थन किया हालांकि पहाड़ी रियासतों के भीतर और बाहर आंदोलनकारी नेताओं में रियासतों के भविष्य के बारे में काफी मतभेद भी बना रहा था। परंतु धीरे-धीरे हिमाचल प्रदेश के निर्माण सभी मुश्किलें हटती जा रही थीं। यह डॉ. यशवंत सिंह परमार और कई क्रांतिकारी नेताओं का महान योगदान था कि सभी मुश्किलें नतमस्तक हो गईं।
हिमाचल के निर्माण में कहीं सहयोग भी था तो कहीं विरोध भी था। विरोध के रूप में पंजाब के नेता सब पहाड़ी रियासतों को पंजाब में मिलाकर ‘महापंजाब प्रांत बनाने के हक में थे। उधर उत्तर प्रदेश के नेता लोग टिहरी गढ़वाल सिरमौर के साथ शिमला की पहाड़ी रियासतों को उत्तर प्रदेश में मिलाने के हक में थे जबकि महाराजा के समर्थक नालागढ़, क्योंथल, सिरमौर, चम्बा व शिमला हिल्स की रियासतों को मिलाकर ‘कोहीस्तान’ बनाना चाहते थे। दूसरी ओर तत्कालीन पहली केन्द्रीय सरकार भी छोटे प्रांत बनाने के हक में नहीं थी। इधर पहाड़ी रियासतों के नेता भी दो धड़ों में बंट चुके थे और उस वजह से ‘हिमालयन हिल स्टेट-रीजनल कौसिल’ कमजोर पड़ गई थी। परंतु डॉ. यशवंत सिंह परमार और अन्य पहाड़ी नेता इस कौंसिल को हर-हालत में कमजोर नहीं होना देना चाहते थे और वे केंद्र सरकार की मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स के अधिकारियों से अलग-अलग मिलते रहते थे। डॉ. यशवंत सिंह अब पीछे हटने वाले नहीं थे। उन्होंने हिमाचल की लड़ाई को जारी रखा जब तक पहाड़ के लोगों को उनका अपना हक नहीं मिला। अखिल भारतीय लोक राज्य परिषद् की प्रथम मार्च, 1948 को पटियाला में हुई कांफ्रेंस में डॉ.यशवंत सिंह परमार और एक अन्य नेता दौलतराम सांख्यान परिषद के अध्यक्ष पट्टयभि सीतारमैया से मिले। इसके पश्चात वे दिल्ली में मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स’ के अधिकारियों से मिले और पहाड़ी रियासतों के गठन बारे और पहाड़ के लोगों को उनका हक मिले इस बारे बात की।
सेंट्रल सरकार के अधिकारियों ने दिल्ली में ही शिमला व पंजाब हिल स्टेट्स के शासकों की बैठक बुलाई। इस बैठक में मिनिस्ट्री ने पहाड़ी रियासतों के शासकों से बिना शर्त ‘विलय पत्र’ पर हस्ताक्षर करने की अपील की परंतु बघाट (सोलन) रियासत के राजा दुर्गा सिंह ठाकुर ने ‘सोलन सभा’ के प्रस्ताव के अनुसार पहाड़ी रियासतों का अलग से ‘हिमाचल प्रदेश’ में सामूहिक विलय का आग्रह किया। परन्तु सेंट्रल गवर्नमेंट की मिनिस्ट्री के सचिव सी. सी. देसाई ने इसका विरोध किया।
सेंट्रल गवर्नमेंट के सचिव के विरोध करने पर पहाड़ी शासकों ने यह बैठक छोड़ दी और फिर नेता भागमल- बुशहरी तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल से मिले। भागमल बुशहरी ने पटेल के सामने सोलन सभा का प्रस्ताव पेश किया और काफी विचार-विमर्श के पश्चात यह निर्णय लिया कि पहाड़ी रियासतों का क्षेत्र हिमाचल प्रदेश के नाम से केन्द्र के अधीन होगा। उसके पश्चात् 8 मार्च, 1948 को केन्द्रीय सरकार की ओर से 27 पहाड़ी रियासतों के विलय से हिमाचल प्रदेश के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई। अंतत: 15 अप्रैल, 1948 को पहाड़ी क्षेत्र को 30 छोटी-बड़ी रियासतों को मिलाकर एक पहाड़ी प्रांत हिमाचल प्रदेश की विधिवत स्थापना की गई और इसे केन्द्र शासित ‘चीफ कमिश्नर प्रोविंस’ का दर्जा दिया गया। परन्तु लोकप्रिय सरकार न होने से पहाड़ी नेताओं और प्रजा का ‘स्वराज’ का सपना अभी पूरा नहीं हुआ था और सारे हिमाचल प्रदेश में चीफ कमीश्नर विरोधी जुलूस लोगों द्वारा निकाले गए और इस दौरान डॉ. यशवंत सिंह परमार हिमाचल प्रदेश के शीर्ष कांग्रेसी नेता बनकर उभरे और उनकी आवाज़ दिल्ली में बैठी तत्कालीन केंद्र सरकार के कानों में और जोर से गूंजने लगी। यह हिमाचल के जनता की आवाज़ थी जिसे अब अनदेखा नहीं किया जा सकता था। परमार के नेतृत्व में हिमाचल प्रदेश कांग्रेस ने लोकप्रिय सरकार के लिए केन्द्र सरकार से संवैधानिक संघर्ष किया। इस संघर्ष की अपनी कहानी रही है जिसे हिमाचल के लोग और आने वाली पीढ़ियाँ हमेशा याद रखेगी और प्रेरित होती रहेगी। इस संघर्ष की कहानी चार अध्यायों में पढ़ी जा सकती है, पहला ब्रिटिश साम्राज्य से संघर्ष, दूसरा रियासतों के ठाकुर, राणा राजों से संघर्ष, तीसरा पड़ोसी प्रान्तों की चुनौतियों का संघर्ष और चौथा केंद्र सरकार से हिमाचल के पहाड़ी लोगों के लिए प्रान्त के लिए संवैधानिक संघर्ष की कहानी रही है तभी आज का हिमाचल पूर्व में हमारे महान नेताओं द्वारा किये इस संघर्ष के बदौलत वर्तमान में भारत संघ राज्य की एक संपूर्ण इकाई के रुप में भारत व विश्व के नक्शे में सुसज्जित है ओर चिरकाल तक रहेगा।
अंततः तत्कालीन पहली केंद्र सरकार ने हिमाचल प्रदेश को ‘पार्ट सी स्टेट’ का दर्जा देकर विधान मंडल की व्यवस्था की। डॉ. यशवंत सिंह परमार 1952 से 1956 और फिर 1957 में सांसद और फिर 1963 से 1977 तक हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे रहे परन्तु उन्होंने विशाल हिमाचल के लिए संघर्ष जारी रखा था। हिमाचल के अस्तित्व पर उस दौरान भी खतरा बना हुआ था क्योंकि ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ ने हिमाचल को पंजाब में विलय करने की सिफारिश की थी। कई महीनों के वाद-विवाद के बाद केन्द्र सरकार ने हिमाचल को अलग भौगोलिक इकाई रखने का आश्वासन दिया। इस आश्वासन को पूरा करने के लिए हिमाचल प्रदेश को लोकप्रिय सरकार का बलिदान देना पड़ा और हिमाचल का पार्ट-सी-स्टेट का दर्जा घटाकर ‘यूनियन टेरीटरी’ कर दिया गया। एक नवम्बर, 1956 को हिम्मत सिंह ने उप- राज्यपाल के रूप में हिमाचल प्रदेश का शासन संभाल लिया। हिमाचल के नेताओं और स्थानीय जनता को प्रदेश के भौगोलिक अस्तित्व के बचाव और विस्तार व लोकप्रिय सरकार की बहाली के लिए पुन: संघर्ष करना पड़ा। इस संघर्ष में सभी दल इकट्ठे हो गए और एक सर्वदलीय समिति का गठन किया गया जिसका नाम ‘विशाल हिमाचल समिति’ रखा। गया। दिसम्बर, 1959 में हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने डॉ. यशवंत सिंह परमार के नेतृत्व में एक शिष्टमण्डल दिल्ली भेजा। डॉ.यशवंत सिंह परमार ने प्रभावशाली ढंग से हिमाचल में लोकतांत्रिक सरकार की मांग की। इन प्रयासों से विशाल हिमाचल तो नहीं बन पाया, परन्तु सन 1961 के अंत तक हिमाचल को विधान सभा मिलने की उम्मीद बढ़ने लगी। सन 1962 के आम चुनाव में कांग्रेस विजयी रही और काफी संघर्षों के उपरान्त जुलाई, 1963 को हिमाचल को लोकप्रिय सरकार की प्राप्ति हुई और टेरीटोरियल काउंसिल को विधान सभा में बदल दिया गया। उसके उपरान्त पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों (निचला हिमाचली पहाड़ी क्षेत्र व ज़िले) के नेताओं ने मिलकर विशाल हिमाचल का प्रचार प्रारम्भ किया और अंतत: विशाल हिमाचल का सपना नवम्बर, 1966 को तब साकार हुआ जब केन्द्रीय सरकार ने कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल-स्पीति, शिमला, ऊना, नालागढ़, डलहौजी, बकलोह आदि पहाड़ी रियासतों को हिमाचल प्रदेश में मिला दिया। फरवरी, 1967 में हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त करने का वाायदा किया और 24 जनवरी, 1968 को प्रदेश विधान सभा में सर्वसम्मति से पूर्ण राज्य प्रदान करने का प्रस्ताव पारित किया गया। परिणामस्वरूप 31 जुलाई, 1970 को प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने संसद में हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की घोषणा की और दिसम्बर, 1970 में संसद में स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश एक्ट पास हुआ। हिमाचल प्रदेशवासियों का पूर्ण राज्यत्व का सपना तब साकार हुआ जब 25 जनवरी, 1971 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने स्वयं शिमला रिज मैदान में आकर इस ऐतिहासिक रिज मैदान पर भारी बर्फबारी के बीच लाखों हिमाचलियों की संख्या में उपस्थित हिमाचलवासियों के समक्ष हिमाचल प्रदेश को भारत के अठारहवें पूर्ण राज्य के रूप में उद्घाटन किया।
आज हम डॉ. परमार सहित सभी नेताओं के कड़े संघर्षों व प्रयत्नों को भुला नहीं सकते जिनकी बदौलत हिमाचल आज विकास के पथ पर निरंतर अग्रसर हो रहा है और हर क्षेत्र में विकास की इबारत लिख रहा है। हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त करने के लिए एक लंबा लेकिन अहिंसक संघर्ष चला जबकि देश के अन्य हिस्सों में ऐसी किसी भी मांग तथा उसकी पूर्ति के साथ व्यापक हिंसा जुड़ी रहती है। यह निःसंदेह एक स्वर्णिम संघर्ष था। हालांकि शुरुआती दिनों में इस कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। ज्यादातर चुनौतियां बाहरी चुनौतियां थीं तो कहीं हिमाचल के निर्माण में बड़े दूसरे राज्यों की चुनौतियां थी कि हिमाचल के पहाड़ों को सीमावर्ती राज्यों में विलय कर बांट दिया जाए लेकिन हमारे पूर्व में रहे महान नेताओं खासकर डॉ. यशवंत सिंह परमार के निरंतर हिमाचल प्रदेश के संघर्ष, हिमाचली संस्कृति, देवी-देवताओं की भूमि हिमाचल, अनोखी संस्कृतियों व रीतिरिवाजों वाला हिमाचल प्रदेश, हिमाचल का वैदिक साहित्य, भोले-भाले हिमाचल के लोगों के विकास के लिए एक वीर योद्धा की तरह संघर्ष करते रहे और उनसे प्रेरणा लेकर वर्तमान में भी हिमाचल प्रदेश के निर्माता डॉ. यशवंत सिंह परमार के कदम-चिन्हों पर वर्तमान नेतृत्व को और यहां के ईमानदारी, बहादुर और कड़ी-मेहनतकश लोगों को प्रदेश के चहुंमुखी विकास के लिए प्रेरित करते रहेंगे।

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