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आपदायें प्राकृतिक या मानवजनित

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देवभूमि कहे जाने वाले हिमाचल और उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य अपनी प्राकृतिक सुंदरता, मनोहारी दृश्यों, वनों की बहुलता, कलरव करती हुई नदियां और झरने, फूल, फल और सब्जियां, आकाश से बातें करते ऊंचे ऊंचे पर्वत शिखर आदि के लिए जाने जाते रहे हैं। यहां के धर्म और कर्म प्रधान निवासियों की जीवन पद्धति और वेशभूषा भी आकर्षण का केंद्र रही हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण ही न केवल भारतवर्ष से बल्कि विदेशों से भी पर्यटक खिचे चले आते हैं।

इन दैवीय और मानवीय गुडों के साथ ही साथ विचार का एक दूसरा स्याह पक्ष भी है जैसे घटित होने वाली प्राकृतिक आपदाएं, बढ़ता हुआ भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं आदि। छुटपुट घटनाएं तो पर्वतीय राज्यों में पहले से ही होती रही हैं किंतु वर्तमान में इनकी संख्या और तीव्रता में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। हिमाचल के चंबा, कुल्लू, किन्नौर, मंडी और सिरमौर आदि जिले बहुत अधिक प्रभावित हुए हैं। मंडी जिला सबसे अधिक प्रभावित रहा है जहां जनधन का भारी नुकसान हुआ है। इसलिए प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या यह आपदाएं प्राकृतिक हैं या मानव जनित हैं? वर्तमान विकास का युग है जिसके लिए यहां अधिक संख्या में चौड़ी-चौड़ी सड़कों का निर्माण हो रहा है। नदियों पर बांधों का निर्माण, बड़े-बड़े होटल, शॉपिंग मॉल, ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं, कारखाने और निर्माण उद्योग लगाए जा रहे हैं। प्रकृति से की गई छेड़छाड़ में यहां भूमि, वनस्पति और वनों का बड़ी मात्रा में दोहन हुआ है। स्थानीय निवासियों ने भी बढ़ती हुई आवश्यकताओं के लिए अनियोजित और अनियंत्रित निर्माण किए हैं। विकास भी यदि सुनियोजित और संतुलित हो तो शायद उसका इतना दुष्प्रभाव ना हो। अतः कई अनुत्तरित प्रश्न उठ खड़े होते हैं जैसे-

1. क्या हम दोहन के साथ-साथ प्रकृति की क्षतिपूर्ति के लिए कोई प्रयास कर रहे हैं?

2. वन क्षेत्र का जितना छरण हो रहा है उतनी मात्रा में क्या वृक्षारोपण भी हो रहा है?

3. निर्माण कार्य की अनुमति देने से पहले स्थान, भूमि या धरातलीय भूसंरचना की जांच की जाती है ?

4. क्या भूमंडलीय जलवायु परिवर्तनों को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाई जाती है ?

5. क्या पहाड़ी राज्यों की जनसंख्या को बदलने वाले अवैध घुसपैठियों के आकर बसने पर उचित कार्यवाही की जा रही है ?

6. क्या कचरा प्रबंधन की उचित व्यवस्था है, पॉलिथीन के प्रयोग पर रोक का कड़ाई से पालन हो रहा है?

उपरोक्त मानवीय कृत्यों से नाराज होकर प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया है। विषय शोध और गहन विश्लेषण का है। यथाशीघ्र सरकारों, भूगर्भवेत्ताओं, जलवायु वैज्ञानिकों, योजना निर्माताओं और सभी जिम्मेदार नागरिकों को प्रयास करने होंगे अन्यथा जनता आपदाओं का दंश सहती रहेगी, विनाश होता रहेगा और कहावत चरितार्थ होगी कि “करे कोई भरे कोई”।

दुर्ग पाल सिंह, सेवा निवृत अध्यापक

शिमला, हिमाचल प्रदेश

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