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आज भी यहाँ अंतिम संस्कार ढोल-नगाड़ों और बाजे-गाजों से जाता है किया 

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हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के ऊपरी भागों में ऐसे-ऐसे रीति-रिवाज और प्रथाएं हैं, जिन्हें पहाड़ के लोगों ने आज भी संजोकर रखा है। लोगों का मानना है कि ये प्रथाएं हजारों सालों से देवताओं के कहने से ऐसे ही चली आ रही हैं। मैदानी इलाकों में तो विदेशी आक्रमणकारियों ने मंदिरों से लेकर रीति-रिवाजों और प्रथाओं को ध्वस्त करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी थी लेकिन पहाड़ों में ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां रहस्यमयी चीजें आज भी मिल रही हैं।

संस्कृति के लुप्त होने का यह परिणाम हुआ कि आज मूर्ति निर्माण और स्थापना में तंत्र और यंत्र विज्ञान का प्रयोग नहीं किया जाता बल्कि मात्र आंशिक मंत्रों का ही प्रयोग किया जा रहा है।

प्रदेश के कई भागों में ऐसी-ऐसी प्रथाएं हैं, जो दांतों तले अंगुलियां दबाने के लिए मजबूर कर देती हैं। कहीं देवता का रथ बिना छूए स्वयं ही दो-दो मीटर तक घूम जाता है, तो कहीं प्रथाएं टूटने पर भीषण आंधी और तूफान तत्काल आ जाते हैं, ऐसे दृश्य देख वैज्ञानिक भी हार मानने के लिए विवश हो जाते हैं।

थाची के डावणू गांव में ऐसी ही एक प्रथा सबसे लिए कोतुहल पैदा कर रही है कि देवता के गुर के प्राण छोडऩे पर उसका बाजे गाजे, ढोल नगाड़े के साथ अंतिम संस्कार किया जाता है।

गत दिनों देव घटोत्कच (आशु) के गुर वरू राम का निधन हो गया तो उनका अंतिम संस्कार प्राचीन प्रथाओं के अनुसार ही किया गया। सबसे पहले गुर के शव को उसी तरह पहनावा पहनाया गया जैसे देव कार्य में पहनते थे, चौला, कलकी, शाफा आदि पहनाकर देवता के सभी बाजे, ढोल, नगाड़े, करनाल आदि बजाए गए और धूमधाम से अंतिम संस्कार किया गया। हालांकि यह हिंदू सनातनी ही हैं लेकिन यह केवल गुर के लिए ही किया जाता है।

उसके बाद गुर की मूर्ति बना उसकी प्राण प्रतिष्ठा करने पर उसे देवता के मंदिर में स्थापित कर दिया गया। मृत्यु से 10 दिन पूर्व ही गुर वरू राम ने बता दिया था कि अब मुझे अच्छे तरीके से ले जाया जा रहा है और घडी पल भी बता दिए, जिसको परिजनों ने हंसी में उड़ा दिया। ठीक उसी समय प्राण छोड़े और भविष्यवाणी सत्य हुई।

देव घटोत्कच (आशु) के सर चोहड़ी गाड़ा में आज भी कई चमत्कार होते रहते हैं। 4-5 वर्ष पहले एक गाय इस सर में डूब गई, लेकिन वह 13 दिन बाद जीवित बाहर आई और वह गाय आज भी जिंदा है। 40 वर्ष पूर्व डिवू (घिरड़ा गुराण) की एक लड़की की उसकी मर्जी के बिना कहीं शादी करवाई जा रही थी, तो उसने वहीं छलांग लगा दी, लेकिन वह भी दूसरे दिन जीवित निकली।

70 वर्ष पहले एक लड़का वहां डूब गया, वह भी तीसरे दिन सुरक्षित निकल आया। कहा जाता है कि सर के अंदर देवता रहते हैं वह सुरक्षित निकलने वाले को बाहर के लोगों को कुछ भी बताने से मना करते हैं, जिस कारण सर के अंदर गए लोग ही इसका रहस्य जानते हैं। देव घटोत्कच (आशु) का यह मंदिर श्मशान भूमि में है, इसे ठानेदार का दर्जा प्राप्त है, इसे न्याय के देवता के रूप में भी पूजा जाता है।

देवता के मंदिर के चारों ओर जहल, दैंत, लाहुलीवीर, चितलूवीर पहरा देते हैं और देव घटोत्कच (आशु) के साथ जोगणियां और शिकारी देवी भी रहती हैं। देवता जब अपना गुर चुनता है तो सबसे पहले कोई युवा चिल्लाते हुए श्मशान में स्थित मंदिर पहुंचता है, उसके बाद वह देवता के सर अर्थात पानी पर चलता है लेकिन वह डूबता नहीं है। इसके बाद ही उसे गुर की उपाधि से नवाजा जाता है। जब यह घटना होती है तो गांव के कई युवा चिल्लाते हुए मंदिर पहुंचते हैं, उसके बाद सभी पानी पर चलने की कोशिश करते हैं लेकिन देवता ने जिसे गुर चुनना होता है, वह पानी पर चलता है। निर्वाण हुए वरू राम 14 वर्ष की उम्र में गुर बन गए थे और 25 मई, तक 2021 तक गुर रहे। इसके बाद अगले गुर के चुनाव के लिए क्षेत्र के लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं और यह घटना दिन-रात कभी भी हो सकती है।

आज से लगभग 5800 वर्ष पहले हिडिम्बा और घटोत्कच ने थाची में निवास किया था, तत्पश्चात पांडवकाल में वर्तमान गुरों के पूर्वजों को गढ़ (परौल के ढांगू) की रक्षा का जिम्मा सौंपा गया था। इन्हीं रक्षकों ने घटोत्कच को अपना देव माना और जगह-जगह देवता के मंदिर बनाए। कहा जाता है कि देव घटोत्कच इनके घराट में स्वयं आटा पीसते थे। जंगल में कई जगह पत्थरों पर घोड़े व बकरी के पैरों के निशान हैं, जो देवता के वाहन माने जाते हैं। उसी काल में देवता ने इन राणा परिवारों को वचन दिए और लिए कि आप में से ही मेरा गुर होगा और जब उसकी मृत्यु होगी, तो वह देव लोक में प्रतिष्ठित होगा। उसके जाने पर शोक नहीं बल्कि उत्सव मनाया जाएगा, गुर हर तीसरी पीढ़ी में एक बार चुना जाता है और यह उत्सव लगभग एक शताब्दी में एक बार ही आता है, क्योंकि गुर बहुत छोटी उम्र में बन जाता है और वह लगभग 70-80 वर्ष गुर बना रहता है।

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