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Editorial: विरासत का वनवास – हिमाचल की अकादमी आधी सदी से लावारिस

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शिमला, अगस्त 17 रितांजलि हस्तीर

पचपन नहीं, पूरे तिरपन साल बीत गए—और हिमाचल प्रदेश की राज्य कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी आज भी बेघर है। जिस संस्था को हमारी सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करनी थी, वह खुद अस्थायी ठिकानों पर दर-दर की ठोकरें खा रही है। कभी किराए के भवनों में, तो कभी किसी उधार की जगह पर—बिना स्थायित्व, बिना गरिमा।

यह सिर्फ़ प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि हिमाचल के कलाकारों, लेखकों और विद्वानों के साथ किया गया खुला विश्वासघात है। सरकारें बदलीं, पर किसी ने इस अकादमी को उसका घर नहीं दिया।

विडंबना देखिए—हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री डॉ. वाई.एस. परमार और पहले संस्कृति मंत्री लालचंद प्रार्थी (जिन्हें “हिमाचल का मिर्ज़ा ग़ालिब” कहा जाता था) ने बड़ी दूरदृष्टि के साथ सांस्कृतिक नीति की नींव रखी थी। केंद्र की ललित कला गैलरी ऐतिहासिक गेयटी थियेटर में आज भी सजी है और उसे छोटा शिमला में विश्रामगृह तक मिला। वहीं राज्य की अपनी अकादमी को हमेशा पराया बच्चा समझा गया।

यही हाल लेखकों के घरों का हुआ—शिमला और हमीरपुर में बने वे भवन जो रचनात्मकता के लिए आश्रयस्थल होने चाहिए थे, आज बंद पड़े हैं।

अकादमी धीरे-धीरे खोखली हो चुकी है। हिंदी, संस्कृत, ललित कला और रंगमंच में एक भी शोध पद मौजूद नहीं। बिना शोध के न तो प्रामाणिक दस्तावेज़ बन सकते हैं, न गंभीर प्रकाशन। एक अकादमी बिना विद्वानों के—मानो धड़कन के बिना शरीर।

सबसे बड़ी चोट इसकी स्वायत्तता पर पड़ी। यह स्वतंत्र संस्था होने के बजाय आज भाषा एवं संस्कृति विभाग की एक शाखा बनकर रह गई है। निदेशक इसे “अतिरिक्त कार्यभार” की तरह निभाते हैं। परिषद की बैठकें महज़ औपचारिकता बन गई हैं।

लॉन्गवुड वुडहॉल भवन की कहानी इस विश्वासघात का आईना है। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने यहाँ अकादमी के स्थायी भवन की आधारशिला रखी थी। वह शिला उम्मीद की लौ थी। पर दस साल बाद भी भवन खंडहर पड़ा है और अकादमी आज भी बेघर है।

दरअसल, यह सिर्फ़ लापरवाही नहीं—यह सांस्कृतिक अपराध है। 53 वर्षों में बार-बार टूटे वादों ने अकादमी को एक दिखावटी संस्था बना दिया है। और इसके अपराधी सिर्फ़ सरकारें नहीं हैं। ब्यूरोक्रेसी जिसने लालफीताशाही में दृष्टि को मार डाला, सरकारें जिन्होंने संस्कृति को भाषणों की शोभा बना दिया, और यहाँ तक कि लेखक भी, जिन्होंने अपने ही संस्थान को शोषण और उपेक्षा का शिकार होने दिया—सब इसके दोषी हैं।

अगर सरकारें अभी भी आँख मूँदकर बैठी रहीं, तो यह साफ़ संदेश जाएगा कि संस्कृति उनके लिए बोझ है, साहित्य और कला उनके लिए बेकार निवेश हैं और विरासत उनके लिए महज़ राजनीतिक दिखावा है।

संस्कृति स्वतंत्रता दिवस की परेड की सजावट नहीं है। यह एक समाज की आत्मा है। और इस आत्मा को तिरपन साल से अनाथ छोड़ देना हिमाचल के भविष्य से विश्वासघात है।

Video credit: hplacacademy dated Oct 11, 2021

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